महानगरिय जीवन




jमहानगर में गुमशुदा, है मेरी पहचान।
हिस्सा हूँ बस भीड़ का, हर कोई अनजान।। १
है मशीन-सी जिन्दगी, सभी चीज गतिमान।
महानगर बिखरा हुआ, तन्हा हर इंसान।। २
शोर-शराबे में दबी, खुद अपनी अावाज।
महानगर में गंदगी, धुन्ध-धुआँ का राज।। ३
महानगर में तेज है, जीवन की रफ़्तार।
चका-चौंध में हैं दफन, रिश्ते-नाते प्यार।। ४
शुद्ध हवा पानी नहीं, दम-घोटू माहौल।
पहनावे को देख कर, जाती आत्मा खौल।। ५
महानगर में हो रहा, पश्चिम का अवतार।
होती गरिमा प्रेम की, यहाँ देह विस्तार।। ६
सहज खींच लाती यहाँ, भौतिक सुख की खोज।
आपा-धापी हर तरफ, लगी हुई है रोज।। ७
महानगर कहते जिसे, होता नहीं महान।
इमारतें ऊँची मगर, निम्न कोटि इन्सान।। ८
महानगर को देखकर, मन हो गया उचाट।
दया-धर्म ममता नहीं, बढ़ी मार-अरु-काट।। ९
महानगर के द्वार पर, लिखा एक संदेश।
आने वालों छोड़ दो, मानवता का वेश।। १ ०






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