महानगरिय जीवन


🌹 🌹 🌹 🌹 
jमहानगर में गुमशुदा, है मेरी पहचान। 
हिस्सा हूँ बस भीड़ का, हर कोई अनजान।। १

है मशीन-सी जिन्दगी, सभी चीज गतिमान। 

महानगर बिखरा हुआ, तन्हा हर इंसान।। २

शोर-शराबे में दबी, खुद अपनी अावाज। 
महानगर में गंदगी, धुन्ध-धुआँ का राज।। ३

महानगर में तेज है, जीवन की रफ़्तार। 
चका-चौंध में हैं दफन, रिश्ते-नाते प्यार।। ४

शुद्ध हवा पानी नहीं, दम-घोटू माहौल। 
पहनावे को देख कर, जाती आत्मा खौल।। ५

महानगर में हो रहा, पश्चिम का अवतार। 
होती गरिमा प्रेम की, यहाँ देह विस्तार।। ६

सहज खींच लाती यहाँ, भौतिक सुख की खोज। 
आपा-धापी हर तरफ, लगी हुई है रोज।। ७

महानगर कहते जिसे, होता नहीं महान। 
इमारतें ऊँची मगर, निम्न कोटि इन्सान।। ८

महानगर को देखकर, मन हो गया उचाट। 
दया-धर्म ममता नहीं, बढ़ी मार-अरु-काट।। ९

महानगर के द्वार पर, लिखा एक संदेश। 
आने वालों छोड़ दो, मानवता का वेश।। १ ०

🌹 🌹 🌹 🌹 - लक्ष्मी सिंह 💓 

Comments

Popular posts from this blog

एक चतुर नार

हमसफ़र

चंद्र ग्रहण