Posts

वीर

Image
वीर साहसी बनो। यूँ न आलसी बनो। सूर्य चंद्र -सा बनो। रत्न यत्न से चुनो। लक्ष्य साध के बढ़ो। धैर्य बाँध के बढ़ो। तुंग श्रृंग पे चढ़ो। पुण्य पंथ पे बढ़ो। हौसला बुलंद हो। जीतना पसंद हो। मर्त्य हो विचार लो। पंख को पसार लो। दिव्य कीर्ति मान हो। सर्व शक्ति मान हो। आर्य अंश ज्वाल हो शूर पूत लाल हो। लक्ष्य भेद तीर से। स्वेद रक्त नीर से। कर्म की कटार से। सत्य के विचार से। पीर स्वाद जो चखा। ध्यान लक्ष्य पे रखा। दीप आस का जला । टाल दे सभी बला। बीज धूल में मिला। फूल तो तभी खिला। वीर हो जयी बनो । स्वप्न यत्न से जनो। देश मान के लिए। आन बान के लिए। स्वाभिमान के लिए। जिस्म जान के लिए। हारना कभी नहीं। टालना कभी नहीं। यत्न हो प्रयास हो। साँस-साँस आस हो। भावना मिटे नहीं। स्वार्थ में बँटे नहीं। बाँटना खुशी सदा। सोचना नई सदा लक्ष्मी सिंह नई दिल्ली

प्रकृति

Image
प्रकृति एक "माँ“की तरह, रखती सबका ख्याल।  हैं ये जीवन दायनी,  इसको रखो सँभाल। । नीर  , हवा , भोजन ,वसन, मुफ्त लुटाती दान। स्वार्थ भरा फिर भी मनुज, करे प्रकृति नुकसान।। प्रकृति नटी सबसे सुखद, रखती हमें निरोग। बाँट रही है स्नेह से, सबको छप्पन भोग।। प्रकृति नष्ट करना नहीं, विनती बारंबार। हरी-भरी धरती रहे, सुरभित हो संसार।। -लक्ष्मी सिंह नई दिल्ली

प्रेम

Image
पी कर प्याला प्रेम का, जी पाया है कौन। जिसने इसको पी लिया, हो जाता है मौन।। बिना बिंधे कलियाँ कभी, हुई गले का हार। बिना दर्द का फिर कहो, कैसे होगा प्यार।। जो मिट जाये प्रेम में, खुद को कर दे राख। होता कोई एक है, नहीं मिलेगे लाख।। -लक्ष्मी सिंह नई दिल्ली

लक्ष्य

Image
भटक रही हूँ लक्ष्य बिन, मंजिल से अंजान। जाऊँ कैसे किस दिशा, नहीं मुझे पहचान।१। लक्ष्य हीन ऐसी दशा, ज्यों मुरझाये फूल। जीवन पग-पग पर लगे, जैसे चुभते शूल।२। लक्ष्य भेद पाई नहीं, सदा गई मैं चूक। उलझन में उलझी रही, अंतस भर कर हूक।३। सदा जंग खाता रहा, ज्यों तरकस में तीर। मेरे हिस्से में मिला, केवल बहता नीर।४। आप निकल आये कहाँ, निज लक्ष्यों को नाप। केवल बसते हैं जहाँ, आस्तीन के साँप।५। लक्ष्मी सिंह नई दिल्ली

कर्म

Image
कर्म दैविक रूप है, तो कर्म ही आकार है। कर्म दैविक संपदा है ,मुक्तियों का  द्वार है।  कर्म जो भी श्रेष्ठ करता, ईश का अवतार है। कर्म से जीवन जगत का, स्वप्न सब साकार है। कर्म पूजा साधना है, पुण्य का आधार है। कर्म के आधार पर ही, भाग्य का विस्तार है। वेद गीता में लिखा है, कर्म सुख का सार है। कर्म जीवन मर्म है, औ प्रेरणा उपकार है। वक्त बदला है मनुज जो, कर्म को तैयार है। कर्म योगी हो मनुज तो, लक्ष्य सब स्वीकार है। स्वेद शोणित मोतियों से , कर्म का श्रृंगार है। कर्म से जीवन सरल है, मुश्किलों से पार है। कर्म जो करता नहीं है, वह मनुज बेकार है। कर्म गठरी बाँध कर ही, चल रहा संसार है। हो भरोसा कर्म पर, मिलते सभी अधिकार है। कर्म से जीवन सजा, आनंद ही उपहार है। -लक्ष्मी सिंह नई दिल्ली

कर्म

Image
कर्म देव द्वार है।  एक दिव्य धार है तुष्टि-पुष्टि प्यार है।  युक्ति-मुक्ति सार है।  कर्म रत्न खान है।  स्वेद रक्त दान है कर्म ही प्रधान है।  सर्व शक्ति मान है।  कर्म छंद काव्य है।  पूर्ण पूज्य भाव्य है।  कर्म योग साधना।  श्रेष्ठ दिव्य भावना।  कर्म ही प्रयास है।  सूर्य का प्रकाश है।  कर्म कृष्ण राम है। सर्व श्रेष्ठ धाम है।  -लक्ष्मी सिंह  नई दिल्ली

चंचल हवा

Image
शोख- चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे। है बड़ी बदमाश-सी कितनी सताती है मुझे। अंग से ऐसे लिपट जाती बदन को चूमती। बावली मुझको बनाती मस्त मौला झूमती। प्यार से भींगी हवा बौछार बनकर छू रही, ले चलूँ तुम को कहाँ नादान दिल से पूछती। जानती -पहचानती ऐसे जताती है मुझे। शोख- चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे। खींचती आँचल कभीउलझा रही है बाल को। काँपते से होठ छूकर चूमती है गाल को। और सीने से लगाकर साँस में घुलने लगी, नर्म कोमल हाथ से सहला रही है भाल को। खोल बाँहे प्रेम की मदिरा पिलाती है मुझे। शोख चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे। ये हवा झकझोरती मुझको जगाती रात में। संग महकी-सी कई यादे दिये सौगात में। चीरती है सर -सराहट दग्ध करती हृदय को, दर्द कितना भर गईं मेरे सभी जज्बात में। सप्त सुर संगीत से मदहोश करती है मुझे। शोख चंचल-सी हवा ये छेड़ जाती है मुझे। - लक्ष्मी सिंह नई दिल्ली